Header Ads

भिखारिन - रबीन्द्रनाथ टैगोर की बहुचर्चित कहानी. Bhikharin - Story by Ravindranath Thakur (Tagore)vishalstudiospjav

भिखारिन - रबीन्द्रनाथ टैगोर की बहुचर्चित कहानी. Bhikharin - Story by Ravindranath Thakur (Tagore)

भिखारिन - रबीन्द्रनाथ टैगोर की बहुचर्चित कहानी. Bhikharin - Story by Ravindranath Thakur (Tagore)vishalstudiospjav


रोजाना अन्धी मन्दिर के दरवाजे पर जाकर खड़ी रहती, दर्शन करने वाले बाहर निकलते तो वह अपना हाथ फैला देती और नम्रता से कहती- "बाबूजी, अन्धी पर दया हो जाए।"


वह जानती थी कि मन्दिर में आने वाले मनुष्य सहृदय और श्रद्धालु हुआ करते हैं। उसका यह अनुमान मिथ्या न था। आने-जाने वाले दो-चार पैसे उसके हाथ पर रख ही देते। अन्धी उनको दुआएँ देती और उनकी सहृदयता को सराहती। औरतें भी उसके पल्ले में थोड़ा-बहुत अनाज डाल जाया करती थीं।


सुबह से शाम तक वह इसी प्रकार हाथ फैलाए खड़ी रहती। उसके बाद मन-ही-मन भगवान को प्रणाम करती और अपनी लाठी के सहारे झोपड़ी का पथ ग्रहण करती। उसकी झोपड़ी नगर से बाहर थी। रास्ते में भी प्रार्थना करती जाती किन्तु राहगीरों में अधिक संख्या सफेद वस्त्रों वालों की होती, जो पैसे देने की बनिस्बत झिड़कियां दिया करते हैं। तब भी अन्धी निराश न होती और उसकी याचना बराबर जारी रहती। झोंपड़ी तक पहुंचते-पहुंचते उसे दो-चार पैसे और मिल जाते।


झोंपड़ी के करीब पहुंचते ही एक दस साल का लड़का उछलता कूदता आता और उससे चिपट जाता। अन्धी टटोलकर उसके माथे को चूमती।


बच्चा कौन है? कहां से आया? इस बात से कोई परिचय नहीं था पाँच साल हुए पास-पड़ोस वालों ने उसे अकेला देखा था। इन्हीं दिनों एक शाम के समय लोगों ने उसको गोद में एक बच्चा देखा, वह रो रहा था, अन्धी उसका मुंह चूम-चूमकर उसे चुप कराने की कोशिश कर रही थी। वह कोई असाधारण घटना न थी, इसलिए किसी ने भी न पूछा था कि बच्चा किसका है? उसी दिन से यह बच्चा अन्धों के पास था और प्रसन्न था। उसको वह अपने से अच्छा खिलातो-पिलाती और पहनाती।


अन्धी ने अपनी झोंपड़ी में एक इंडिया गाड़ रखी थी। शाम के समय जो कुछ मांगकर लाती उसमें डाल देती और उसे किसी वस्तु से ढक देती। इसलिए कि दूसरे व्यक्तियों की दृष्टि उस पर न पड़े। खाने के लिए अन्न काफी मिल जाता था। उससे काम चलाती। पहले बच्चे को पेट भरकर खिलाती फिर स्वयं खाती। रात को बच्चे को अपनी छाती से लगाकर वहीं पड़ जाती। सुबह होते ही उसको खिला-पिलाकर फिर मन्दिर के दरवाने पर जा खड़ी होती।


काशी में सेठ बनारसी दास बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति हैं। बच्चा-बच्चा उनकी कोठी को जानता है। बहुत बड़े देशभक्त और धर्मात्मा है। धर्म में उनक बड़ी रुचि है। दिन के बारह बजे सेठ स्नान-ध्यान में संलग्न थे, परन्तु ऐसे आदमियों का भी तांता बंधा रहता जो अपनी पूंजी सेठजी के पास धरोहर रूप में रखने आते थे। सैकड़ों भिखारी अपनी जमा पूंजी इन्हें सेठजी के पास जमा कर जाते। अन्धी को भी यह बात मालूम थी, किन्तु पता नहीं अब वह अपनी कमाई यहां जमा कराने में क्यों हिचकिचाती थी।


उसके पास काफी रूपये हो गए थे, हांडी लगभग पूरी भर गई थी। उसको डर था कि कोई चुरा न ले। एक दिन शाम के समय अन्धी ने वह हांडी उखाड़ी और अपने फटे हुए आंचल में छिपाकर सेठजी की कोठी पर पहुंची।


सेठजी बहीखाते के पृष्ठ उलट रहे थे, उन्होने पूछा-"क्या है बुड़िया ?"


अंधी ने होडी उनके आगे सरका दी और डरते-डरते कहा "सेउनी, इसे अपने पास जमा कर लो, मैं अंधी, अपाहिन कहाँ रखती फिरूंगी?"


सेठनो ने हांडो को ओर देखकर कहा-"इसमें क्या है?"


अन्धी ने उत्तर दिया" भीख मांग-मांग कर अपने बच्चे के लिए दो चार पैसे इकट्ठे किये हैं. अपने पास रखते हुए डरती हूँ कृपया इन्हें आप अपनी कोठी में रख लें।"


सेठजी ने मुनीम की ओर इशारा करते हुए कहा "यहाँ में जमा कर लो।" फिर बुढ़िया से पूछा "तेरा नाम क्या है?" अंधी ने अपना नाम बताया, मुनोमनी ने नकदी गिनकर उसके नाम में जमा कर लो और वह सेठनी को आशीर्वाद देती हुई अपनी झोपड़ी में चली गई।


दो वर्ष बहुत सुख के साथ बीते। इसके पश्चात् एक दिन लड़के को ज्वर ने आ दबाया। अंधी ने दवा-दारू


की, झाड़-फूंक से भी काम लिया, टोने-टोटके को परीक्षा की परन्तु सारी कोशिशें बेकार साबित हुई। लड़के


की दशा दिनो-दिन बुरी होती गई, अंधी का हृदय टूट गया, साहस ने जवाब दे दिया, निराश हो गई, परन्तु फिर


ध्यान आया कि शायद डॉक्टर के इलाज से फायदा हो जाए। इस विचार के आते ही वह गिरती पड़ती सेठजी की


कोठी पर आ पहुंची। सेठनी वहां मौजूद थे।


अंधी ने कहा- " सेठनों मेरी जमा पूंजी में से दस पाँच रूपये मुझे मिल जायें तो बड़ी मेहरबानी हो। मेरा बच्चा मर रहा है,


सेठ जी ने कठोर स्वर में कहा "कैसी जमा पूंजी ? कैसे रूपये ? मेरे पास किसी के रुपये जमा नहीं है।" अंधी ने रोते हुए कहा- "दो वर्ष हुए मैं आपके पास धरोहर रख गई थी दे दीजिए बड़ी दया होगी।" सेठनी ने मुनीम को और रहस्यमयी नजर से देखते हुए कहा- " मुनीम जी, जरा देखना तो, इसके नाम की कोई पूंजी जमा है क्या? तेरा नाम क्या है ?"


अंधी को जान में जान आई. आशा बंधी पहला उत्तर सुनकर उसने सोचा कि सेठ बेईमान है, किन्तु अब


सोचने लगी, शायद उसे ध्यान न रहा होगा। ऐसा धर्मी आदमी भी भला कहीं झूठ बोल सकता है। उसने अपना नाम


बता दिया। उलट-पलट कर देखा। फिर कहा-"नहीं तो, इस नाम पर एक पाई भी जमा नहीं है।"


अंधी वहीं बैठी रही। उसने रो-रो कर कहा-"सेठनो, परमात्मा के नाम पर धर्म के नाम पर कुछ दे दीजिए। मेरा बच्चा जौ जाएगा। मैं जीवन भर आपके गुण गाऊँगी।"

परन्तु पत्थर में कोमलता न आई। सेठनी ने गुस्सा होकर उत्तर दिया- "जाती है या फिर नौकर को अंधी लाठी टेककर खड़ी हो गई और सेठ की तरफ मुँह करके बोली-" अच्छा भगवान तुम्हें बहुत दे।" और अपनी झोंपड़ी की तरफ चल दी।

यह आशीर्वाद न था बल्कि एक दुःखो का शाप था। बच्चे की दिशा बिगड़तो गां, दवा-दारू हुई ही नहीं, फायदा क्योंकर होता। एक दिन उसकी हालत चिन्ताजनक हो गई, प्राणों के लाले पड़ गये, उसके जीवन से अंधी भी निराश हो गई। सेठनी पर रह-रह कर उसे गुस्सा आता था। इतना धनी व्यक्ति है, दो-चार रुपये दे देता तो क्या चला जाता और फिर में उससे कुछ दान नहीं मांग रही थी, अपने ही रुपये मांगने गई थी। सेठनी से नफरत हो गई।

बैठे-बैठे उसको कुछ ध्यान आया। उसने बच्चे को अपनी गोद में उठा लिया और ठोकरें खातो, गिरती पड़ती, सेठनों के पास पहुंची और उनके दरवाजे पर धरना देकर बैठ गई। बच्चे का शरीर ज्वर से भभक रहा था और अंधी का कलेना भी।

एक नौकर किसी काम से बाहर आया। अभी को बैठा देखकर उसने सेठनी को खबर दो, सेठनो ने इजाजत दी कि उसे भगा दो।

नौकर ने अंधी से चले जाने को कहा, किन्तु वह उस स्थान से न हिली मारने का डर दिखाया, पर वह टस से मस न हुई। उसने फिर अन्दर जाकर कहा कि वह नहीं टलती।

सेठनी खुद बाहर गये देखते ही पहचान गया। बच्चे को देखकर उन्हें बहुत अचम्भा हुआ कि उसकी शक्ल-सूरत उनके मोहन से बहुत मिलती-जुलती है। सात वर्ष हुए तब मोहन किसी मेले में खो गया था उसकी बहुत खोज की, पर उसका कोई पता न मिला। उन्हें याद हो आई कि मोहन की जांघ पर एक लाल रंग का चिन्ह

था। इस विचार के आते हो उन्होंने अंधी की गोद से बच्चे की जांध देखी चिन्ह अवश्य था परन्तु पहले से कुछ

बड़ा। उनको यकीन हो गया कि बच्चा उन्हों का है। उन्होंने तुरन्त उसको छीनकर अपने कलेने से चिपका लिया।

शरीर बुखार से तप रहा था। नौकर को डॉक्टर लाने के लिए भेजा और स्वयं मकान के अन्दर चल दिए।

अंधी खड़ी हो गई और चिल्लाने लगी- "मेरे बच्चे को न ले जाओ, मेरे रुपये तो हजम कर गये अब क्या

मेरा बच्चा भी मुझसे छीनोगे सेठजी बहुत चिन्तित हुए और कहा-"बच्चा मेरा है, यही एक बच्चा है, सात वर्ष पूर्व कहीं खो गया था अब

मिला है, इसलिए इसे कहीं नहीं जाने दूंगा और लाख कोशिशें करके भी इसके प्राण बचाऊंगा।"

अंधी ने एक जोरदार ठहाका लगाया-' "तुम्हारा बच्चा है, इसलिए लाख यन करके भी इसे बचाओगे। मेरा बच्चा होता तो उसे मर जाने देते, क्यों? यह भी कोई न्याय है? इतने दिनों तक खून-पसीना एक करके उसको पाला है। मैं उसको अपने हाथ से नहीं जाने दूंगी।"

सेठनी की अनोब हालत थी। कुछ करते धरते बन नहीं पड़ता था। कुछ देर वहीं मौन खड़े रहे फिर मकान के अन्दर चले गये। अन्धी कुछ समय तक खड़ी रोती रहो फिर वह भी अपनी झोंपड़ी की ओर चल दी।

दूसरे दिन प्रातः ईश्वर की कृपा हुई या दवा ने जादू का सा प्रभाव दिखाया। मोहन का बुखार उतर गया। होश आने पर उसने आंख खोली तो सर्वप्रथम शब्द उसकी जुबान से निकला-"मां"

चारों ओर अजनबी शक्लें देखकर उसने अपने नेत्र फिर बन्द कर लिये। उस समय से उसका ज्वर फिर ज्यादा होना शुरू हो गया। मां की रट लगी हुई थी, डॉक्टरों ने जवाब दे दिया, सेठनी के हाथ-पांव फूल गये, उन्हें चारो तरफ अंधेरा दिखाई पड़ने लगा।
"क्या करूँ अब एक ही बच्चा है, इतने दिनों बाद मिला भी तो मौत उसको अपने चंगुल में दवा रही है, इसे कैसे बचाऊं ?"

अचानक उसको अन्धी का ध्यान आया। पत्नी को बाहर भेजा कि देखो कहाँ वह अब तक दरवाजे पर न बैठी हो, परंतु वह वहाँ कहाँ थी ? सेठनी ने फिटन तैयार कराई और बस्ती से बाहर उसकी झोपड़ी पर पहुंचे। झोंपड़ी बिना दरवाने की थी, अन्दर गए। देखा अन्धी एक फटे-पुराने टाट पर पड़ी है और उसकी आंखों से अश्रुधारा बह रही है। सेठजी ने धीरे से उसको हिलाया। उसका शरीर भी अग्नि की तरह तप रहा था।

सेठजी ने कहा- "बुढ़िया तेरा बच्चा मर रहा है, डॉक्टर निराश हो गए, रह-रह कर वह तुझे पुकारता है। अब तू ही उसके प्राण बचा सकती है। चल और मेरे नहीं-नहीं अपने बच्चे की जान बचा ले।" अन्धी ने जवाब दिया " मरता है तो मरने दो, मैं भी मर रही हूं। हम दोनों स्वर्गलोक में फिर मां-बेटे को

तरह मिल जाएँगे। इस लोक में सुख नहीं है, वहाँ मेरा बच्चा सुख में रहेगा। मैं वहां उसकी ठीक तरह से सेवा

शुश्रूषा करूंगी।"

सेठानी रो दिये। आज तक भी उन्होंने किसी के सामने सिर न झुकाया था, किन्तु इस समय अन्धी के पांवों पर गिर पड़े और रो-रो कर कहा-"ममता की लाज रख लो, आखिर तुम भी उसकी मां हो। चलो, तुम्हारे जाने से वह बच जायेगा।"

ममता शब्द ने अन्धी को बेचैन कर दिया। उसने तुरन्त कहा-"अच्छा चलो।" सेठनी उसको सहारा देकर बाहर लाये और फिटन पर बिठा दिया। फिटन पर की ओर दौड़ने लगी। उस समय सेठानी और अन्धी भिखारिन दोनों को एक ही हालत थी। दोनों की यही इच्छा थी कि जल्दी से जल्दी

अपने बच्चे के पास पहुंच जायें।

कोठी आ गई, सेठनी ने सहारा देकर अन्धी को उतारा और अन्दर ले गए। भीतर नाकर अन्धी ने मोहन के माथे पर हाथ फेरा। मोहन पहचान गया कि यह उसकी मां का हाथ है। उसने तुरन्त आंखें खोल दी, और उसने अपने पास खड़े हुए देखकर कहा- "मी, तुम आ गई।"

अन्धी भिखारिन मोहन के सिरहाने बैठ गई और उसने मोहन का सिर अपनी गोद में रख लिया उसको बहुत सुख का अहसास हुआ और वह उसकी गोद में तुरन्त सो गया।

दूसरे दिन से मोहन की हालत अच्छी होने लगी और दस-पन्द्रह दिन में वह बिल्कुल तन्दुरुस्त हो गया।

 जो काम हकीमों के जोशान्दे, वैद्यों की पुड़िया और डॉक्टरों के मिक्सचर न कर सके वह अन्धी की प्यार-भरी सेवा ने पूरा कर दिया।

मोहन के पूरी तरह ठीक हो जाने पर अन्धी ने विदा मांगी। सेठजी ने बहुत-कुछ कहा-सुना कि वह उन्हीं के पास रह जाए परन्तु वह राजी न हुई, मजबूर होकर विदा करना पड़ा। जब वह चलने लगी तो सेठजी ने रुपयों की थैली उसके हाथ में दे दी। अन्धी ने मालूम किया - " इसमें क्या है ?"

सेठजी ने कहा - " इसमें तुम्हारी धरोहर है, तुम्हारे रुपये। मेरा वह अपराध...।" अन्धी ने बात काटकर कहा - "यह रुपये तो मैंने तुम्हारे मोहन के लिए इकक्ठे किये थे, उसी को दे देना।"

अन्धी ने थैली वहीं छोड़ दी और लाठी टेकती हुई चल ली। बाहर निकलकर फिर उसने उस घर की ओर नेत्र उठाये उसकी आंखों से आँसू बह रहे थे किन्तु वह एक भिखारिन होते हुए भी सेठ से महान् थी। इस समय सेठ भिखारी था और वह देने वाली थी।

Powered by Blogger.